शनिवार, 17 अक्तूबर 2009

गजल- 34

अस्सुब के अंधेरों को मिटायें तो उजाला हो
कोई दीपक मुहब्बत का जलाएं तो उजाला हो

उदासी का अँधेरा हर तरफ छाया है महफिल में
वो आकर अंजुमन में मुस्कुराएँ तो उजाला हो

जिन्होंने चाँद सा चेहरा छुपा रक्खा है घूंघट में
वो घूंघट अपने चेहरे से हटायें तो उजाला हो

अभी तो जहन--दिल पर बदगुमानी की सियाही है
यकीं वो अपनी चाहत का दिलाएं तो उजाला हो

ये कैसी शर्त रख दी है चमन के बागबानों ने
की हम ख़ुद आशियाँ अपना जलाएं तो उजाला हो

चरागों की हर इक लौ आज तूफानों की जद में है
हिफाजत ख़ुद करें इनकी हवाएं तो उजाला हो

मयंक इतना अँधेरा है हताशा और निराशा का
कोई सूरज उमीदों का उगायें तो उजाला हो

गुरुवार, 17 सितंबर 2009

गजल- 33

जो दिल रखते नहीं उनको मुहब्बत हो नहीं सकती
फरिश्तों के मुकद्दर में ये दौलत हो नहीं सकती

मुझे डॉलर से बढ़कर अपनी मिट्टी से मुहब्बत है
परस्तारे-वतन हूँ, मझ से हिजरत हो नहीं सकती

महाभारत हो, करबल हो, यही पैगाम देते हैं
कभी नेकी बदी के बीच बैअत हो नहीं सकती

ये फित्नाकार जितना चाहें उतनी कोशिशें कर लें
कयामत से मगर पहले कयामत हो नहीं सकती

वो जन्नत की गली हो या कोई दीगर हसीं शय हो
मेरे भारत से बढ़कर खूबसूरत हो नहीं सकती

वतन की आबरू जिनको नहीं है जान से प्यारी
कभी सीमाओं की उनसे हिफाजत हो नहीं सकती

ये गूंगापन, ये सजदे, बेड़ियाँ और रेंगते रहना
मैं कैसे मान लूँ यारो बगावत हो नहीं सकती

पड़ोसी के फ़राइज़ गर मयंक अपनाएं हम दोनों
उन्हें हमसे, हमें उनसे शिकायत हो नहीं सकती

मंगलवार, 1 सितंबर 2009

गजल- 32

वही राहें बनाता है, वही मंज़िल बनाता है
वही राहों पे चलने के हमें क़ाबिल बनाता है

डुबोने से ज़ियादा उसकी ख्वाहिश है बचाने की
तभी तो एक दरिया और दो साहिल बनाता है

बनाता है बड़ी मेहनत से वो दिलकश, हसीं चेहरे
बचाने को नज़र से उन पे काले तिल बनाता है

जनम लेता है इन्सां इस जहाँ में नेकियाँ लेकर
मगर माहौल उसको संत या क़ातिल बनाता है

हया, पर्दा, झिझक, नज़रें चुराना और चुप रहना
न जाने इशक क्यों इंसान को बुज़दिल बनाता है

ग़रीब इंसान जब आसानियों में ढूंढता है हल
तो अपनी मुश्किलों को और भी मुश्किल बनाता है

मयंक इन्सां सबक़ लेता नहीं जो अपने माज़ी से
वो दोज़ख से भी बदतर अपना मुस्तक़बिल बनाता है

सोमवार, 17 अगस्त 2009

गजल- 31

वही हालत है इसकी भी कि जो हालत हमारी है
ज़माना तुमको क्या देगा, ज़माना ख़ुद भिखारी है

हमारे गाँव में इंसानियत है, दोस्तदारी है
तुम्हारे शहर में हर शख्स दौलत का पुजारी है

ज़माने भर के गम सारे चले आते हैं घर मेरे
न इनसे दोस्ती अपनी, न कोई रिश्तेदारी है

मुनासिब है करो अपनी हिफाजत शौक़ से, लेकिन
हमें महफूज़ रखना भी तुम्हारी जिम्मेदारी है

हमें मालूम है पत्थर कभी पूजे नहीं जाते
मगर फिर भी तुम्हारी आरती हमने उतारी है

सवारी और सवार आनन्द दोनों ही उठाते हैं
पिता की पीठ पर बच्चा अगर करता सवारी है

ज़माने को पसंद आए न आए, क्या गरज़ हम को
हमारी हर अदा लेकिन हमारी मां को प्यारी है

किसी की कोई भी अब बद्दुआ लगती नहीं मुझको
मेरी मां ने नजर जब से मेरी आ कर उतारी है

विरासत में कुछ भी चाहिए मुझ को मेरे भाई
मेरे हिस्से में गर मां-बाप की तीमारदारी है

मयंक आया न कोई हस्बे-वादा पुरसिशे-गम को
कि हम ने तारे गिन-गिन कर शबे-फुरकत गुज़ारी है.

शुक्रवार, 19 जून 2009

गजल 30

तुमने जिसकी जिन्दगी पामाल की

दो इजाज़त उसको अर्जे हाल की


भर लिए दामन में अपने अश्के गम

जिंदगी यूं हमने मालामाल की


इश्क फ़िर फरमाईये किबला हुजूर

फ़िक्र कीजे पहले आटे दाल की


मैं गुजारिश रहम की करता नहीं

दो सजा मुझ्कू मेरे आमाल की


तोड़ कर उड़ जाएगा एक दिन परिन्द

बंदिशे जितनी हैं मायाजाल की


जंग में माँ की दुआएं साथ हैं

क्या ज़रूरत है मुझे अब ढाल की


कम से कम ही बैठ पाती हैं 'मयंक'

पालकी में बेटियाँ कंगाल की

गजल 29

देख लीजे जो देखा नहीं
जिंदगी का भरोसा नहीं

गम की शिद्दत उसे क्या पता
दिल कभी जिसका टूटा नहीं

आओगे ख्वाब में किस तरह
मुद्दतों से मैं सोया नहीं

जिसको फूलोसे है उनसियत
वो कभी खार बोता नहीं

देखिये मेरी मजबूरियां
मैं जो चाहूँ वो होता नहीं

आ के साहिल पे क्यों डूबते
नाखुदा जो डुबोता नहीं

छोडिये फ़िक्रे सूदो जियां
इश्क है इश्क , सौदा नहीं

प्यार होता है ख़ुद ही 'मयंक'
प्यार करने से होता नहीं।

सोमवार, 15 जून 2009

गजल 28

जो तिरंगे को करना नमन छोड़ दें

उनसे कह दो वो मेरा वतन छोड़ दें।



पंचशील और अहिंसा के हामी हैं हम
क्यों खुलूसो-वफा के चलन छोड़ दें।


'सूर' , 'गालिब' , 'कबीरा' के वारिस हैं हम
क्यों मुहब्बत के लिखना सुखन छोड़ दें।

शहरे कातिल में रहकर मुनासिब नहीं
बाँधना हम सरों से कफन छोड़ दें।

हिंद गौरी के शोलों से डर जाएगा
देखना आप ऐसे सपन छोड़ दें।

'मयंक' अब यही वक्त की मांग है
एक दूजे से रखना जलन छोड़ दें।

शनिवार, 13 जून 2009

गजल 27

हम किसे अपना बनायें शाम ढल जाने के बाद
हाले दिल किसको बतायें शाम ढल जाने के बाद ।

क्या करें जब दिल के अरमानों को सुलगाती हैं ये
उनके कूचे की हवायें शाम ढल जाने के बाद ।

जब भी मुड़ कर देखता हूँ कुछ नजर आता नहीं
कौन देता है सदायें शाम ढल जाने के बाद।

उगते सूरज की इबादत की जिन्होंने उम्र भर
जश्न वह कैसे मनायें शाम ढल जाने के बाद ।

बज्म में वह माहरू जब बेनकाब आने को है
किसलिए दीपक जलायें शाम ढल जाने के बाद।

चूमता हूँ मैं नये अशआर अपने यूं 'मयंक'
चूमे ज्यों बच्चों को मायें शाम ढल जाने बाद।

बुधवार, 10 जून 2009

गजल 26

मेरे आंसू गरचे मेरी दास्ताँ कहते रहे
कहने वाले फ़िर भी मुझको बेज़बा कहते रहे।
और कुछ कहने की फुर्सत जिंन्दगी ने दी कहाँ
उम्र भर हम अपने गम की दास्ताँ कहते रहे।
कर दिया बरबाद जिसकी मेहरबानी ने हमें
हम उसी नामेहरबाँ को मेहरबां कहते रहे।
जिनके दम से थी बहुत महफूज़ शाखे-आशियाँ
हम उन्हीं तिनकों को अपना आशियाँ कहते रहे।
जिसने ख़ुद लूटा सरे मंजिल हमारा कांरवा
हम उसी को अपना मीरे-कांरवा कहते रहे।
जिसकी मिट्टी ने हमारे जिस्म को बख्शी जिला
उम्र भर हम उस जमीं को आसमां कहते रहे।
खाना-ऐ-दिल में हमारे जो मकीं है ऐ 'मयंक'
तौबा-तौबा हम उसी को लामकां कहते रहे।

ग़ज़ल 25

ग़ज़ल के वास्ते लहजा नया तलाश करो
नयी रदीफ़ नया काफिया तलाश करो।

हर इक जुबां में ग़ज़लें कही -सुनी जाएँ
सुखन की दोस्तों ऐसी फिजा तलाश करो।

नयी गजल में नया रंग डालने के लिए
नयी जमीन नया जाबिया तलाश करो।

किसी जबां की बपौती नहीं है सिन्फ़-ऐ-गजल
न माने बात ये ,वो माफिया तलाश करो।

गजल से रंग-ऐ-तगज़्ज़ुल कहीं मिट न जाए
गजल गजल में गजल की अदा तलाश करो।

गजल के रंग में कुछ हुस्न-ऐ-आगही डालो
तो फ़िर गजल में तुम अपनी, खुदा तलाश करो।

अदब समाज की किस्मत बदल भी सकता है
गजल पे चल के नया रास्ता तलाश करो।

गजल से देश में गर इन्कलाब लाना है
अदब में फ़िर कोई बिस्मिल नया तलाश करो।

कि जिसको पढ़ते ही मिट जाएँ सारे दर्दो अलम
'मयंक' ऐसा गजल में नशा तलाश करो।

शुक्रवार, 29 मई 2009

गजल- 24

मत किसी का बुरा कीजिये
हो सके तो भला कीजिये।


है मरज़ इश्क का लादवा
मेरे हक में दुआ कीजिये ।


ये मुहब्बत भी क्या खूब है
बेवफा से वफ़ा कीजिये।

लोग जिसको मिसाली कहें
कोई ऐसी खता कीजिये।

अक्ल को दख्ल देने न दें
दिल कहे वह कहां कीजिये ।

साफगोई बजा है मगर
क्यों किसी को खफा कीजिये।

जो लगाये बुझाए 'मयंक'
उससे बचकर रहा कीजिये।

बुधवार, 27 मई 2009

गजल -23

मेरी मय्यत पर आ जाना पहन के जोड़ा शादी का
दुनिया वाले भी तो देखें ज़श्न मेरी बर्बादी का

हुस्न और इश्क के बीच में हरदम चांदी की दीवारे हैं
रास कहाँ मुफलिस को आता प्यार किसी शहजादी का


देख के मेरी हालत मौसम की भी आँखें नम हैं आज
तुम भी तडप उठोगे सुनकर जिक्र मेरी बर्बादी का


दूर कफस से हूँ मैं लेकिन यादे माजी में हूँ कैद
मतलब गलत लगा बैठे हैं लोग मेरी आजादी का

किसकी अदालत में वह जाए किससे मांगे अब इन्साफ

कोई भी पुरसा हाल नहीं है आज यहाँ फरियादी का

जो भी चाहो शौक से पहनो तन पर लेकिन दीवानों
तार तार तुम मत कर देना पैराहन आजादी का


मुद्दत से मैं भटक रहा हूँ नफरत के सहरा में 'मयंक'
काश कोई रस्ता दिखला दे चाहत की आबादी का।

रविवार, 24 मई 2009

गजल- 22

क्या पीरी क्या दौरे जवानी
चार दिनों की रामकहानी।

घाट पे जब भी पापी पहुंचा
गंगा हो गई पानी-पानी।

लाख इसे समझाया लेकिन
दिल ने की अपनी मनमानी

घूम रहे हैं कासा लेकर
क्या जनता क्या राजा-रानी।

तेरी यादें ऐसी महकें
रात में जैसे रात की रानी।

तर्के-मुहब्बत तौबा-तौबा
मत करना ऐसी नादानी ।

ड़ूब गई जब दिल की किश्ती
थम गई मौजों की तुग्यानी।

मुझको मयंक ऐसा लगता है
मर गया सबकी आँख का पानी ।

गजल- 21

वक्त की रफ्तार को रखिये पकड़ कर हाथ में
और फिर कहिये कि है अपना मुकद्दर हाथ में

अब तुझे कोई बचा सकता नहीं ऐ संगदिल
आ रहे हैं आइने अब लेके पत्थर हाथ में

बंद मुट्ठी लाख की है तो भला बतलाइए
क्या छुपा रक्खा है यह मट्ठी के अंदर हाथ में

ऐ हवसकारो, जरा देखो तो आँखें खोल कर
ले गया क्या लेके आया था सिकन्दर हाथ में

नफरतों की राह पर यूंही अगर चलते रहे
कुछ न आएगा तुम्हारे जिंदगी भर हाथ में

बैठ कर साहिल पे क्यों चुनता है कंकर ऐ मयंक
डूबने वालों के ही आते हैं गौहर हाथ में

शनिवार, 23 मई 2009

गजल- 20

न होते हौसले तो रास्ते यूँ सर नहीं होते
उडानें भरने वाले दिल के लेकिन पर नहीं होते

खुदा आँखें तो देता है मगर ऐसा भी होता है
कि उनके देखने के वास्ते मंजर नहीं होते

हंसी में भी कभी आंखों में आंसू झिलमिलाते हैं
मैं रोता हूँ मेरी आंखों के गोशे तर नहीं होते

समन्दर में अगर मैं डूबने से डर गया होता
यकीनन मेरे हाथों में कभी गौहर नहीं होते

इरादों में कभी भी इन्कलाब आने नहीं पाता
अगर कुछ वलवले दिल के मेरे अन्दर नहीं होते

कभी ऐ ताजिरों, इस बात पर भी गौर फरमाया
कि वो कैसे रहा करते हैं जिनके घर नहीं होते

मयंक उस तीरगी में डूब जाता यह जहाँ सारा
अगर महफिल में बेपर्दा वो जलवागर नहीं होते

गजल- 19

मैं ने कहा हो जलवागर, उसने कहा नहीं नहीं
मैं ने कहा मिला नजर, उसने कहा नहीं नहीं

मैं ने कहा ये शाम है, उसने कहा ये जाम है
मैं ने कहा तो जाम भर, उसने कहा नहीं नहीं

मैं ने कहा कहाँ मिलें, उसने कहा जहाँ कहें
मैं ने कहा कि बाम पर, उसने कहा नहीं नहीं

मैं ने कहा कि रुख इधर, उसने कहा, है चश्म तर
मैं ने कहा कि सब्र कर, उसने कहा नहीं नहीं

मैं ने कहा कि हो नजर, उसने कहा कहाँ, किधर
मैं ने कहा मयंक पर, उसने कहा नहीं नहीं

गुरुवार, 7 मई 2009

गजल- 18

माना कि एक संग हूँ , शंकर नहीं हूँ मैं
लेकिन किसी की राह का पत्थर नहीं हूँ मैं

आवारगी है मेरा मुकद्दर तो क्या हुआ
सबके दिलों में रहता हूँ, बेघर नहीं हूँ मैं

सबके लबों की प्यास बुझाता हूँ रात दिन
दरिया हूँ मीठे जल का, समन्दर नहीं हूँ मैं

आते नहीं हैं मुझको सियासत के दांव पेंच
राही हूँ राहे इश्क का, रहबर नहीं हूँ मैं

गरचे मेरी उड़ान फलक तक है ऐ मयंक
दुनिया की बंदिशों से भी बाहर नहीं हूँ मैं

सोमवार, 4 मई 2009

ग़ज़ल 17

आपकी जो भी चाल है साहब
वाकई बेमिसाल है साहब
रोज़ आते हैं वह तसव्वुर में
उनको मेरा ख़याल है साहब
चाँद सूरज से भी सिवा यारों
उनका हुस्नो जमाल है साहब
जिसने अंजाम पर नज़र की है
वह परेशान हाल है साहब
रिफ़अतें अब कहाँ हैं किस्मत में
अब तो दिल पायमाल है साहब
अपनी हद से गुज़र गया था मैं
मुझको इसका मलाल है साहब
क्यों मयंक आदमी है छोटा बडा
खून जब सबका लाल है साहब।

रविवार, 3 मई 2009

गजल -16


कहीं गीता के वारिस हैं कहीं कुरआन के वारिस

हकीक़त में मगर यह सब हैं हिन्दुस्तान के वारिस

हमारी पारसाई पर खुदाई नाज करती है

हमीं हैं हाँ हमीं हैं दौलते ईमान के वारिस

अदब और शायरी का दोस्तों हाफिज़ खुदा होगा

अगर जाहिल रहेंगे मीर के दीवान के वारिस

मुझे हर एक मजहब से जियादा देश प्यारा है

मेरी यह बात सुन लें धर्म के ईमान के वारिस

वो जिसके नाम से लाखों हजारों फैज़ पाते थे

बिलखते भूख से देखे हैं उस सुलतान के वारिस

मयंक अठखेलियाँ हैं जो मौजे हवादिस से

हकीक़त में वही तो होते हैं तूफ़ान के वारिस

शुक्रवार, 1 मई 2009

गजल- 15

हाथ यारी का बढाते हुए डर लगता है
हर इक से जताते हुए डर लगता है

छीन कर मुझ से कहीं तोड़ न डाले जालिम
आइना उस को दिखाते हुए डर लगता है

मेरे घर में भी कहीं लोग न फेंकें पत्थर
पेड़ आंगन में लगाते हुए डर लगता है

लोग दर पर भी तेरे आते हैं तलवार लिए
सर को सजदे में झुकाते हुए डर लगता है

और मगरूर न हो जाए सितम पर अपने
हाले गम उसको सुनाते हुए डर लगता है

कैसे पुर्सिश को मयंक आयेंगे वह रात गये
जिनको ख्वाबों में भी आते हुए डर लगता है


गजल-14

मौत के पैकर में ढलने दीजिये
चींटियों के पर निकलने दीजिये

ख़ाक हो जाएगा इक दिन ख़ुद बखुद
हम से जो जलता है, जलने दीजिये

जोश जो दिल में हमारे है, उसे
जंग के पैकर में ढलने दीजिये

देखता है ख्वाब जो कश्मीर का
उसको ख्वाबों में ही पलने दीजिये

ठोकरें खा कर गिरेंगे मुंह के बल
झूठ की राहों पे चलने दीजिये

जो मेरी आंखों में चुभते है मयंक
मुझको वो कांटे कुचलने दीजिये

मंगलवार, 14 अप्रैल 2009

ग़ज़ल 13

ज़र्फ़ की मीजान पर हर दोस्त पहचाना गया
हम ज़रा सी बात पर रूठे तो याराना गया

हम जो उनकी बज्म से दामन झटक कर चल दिए
खुश हुए, कहने लगे, अच्छा है दीवाना गया

मैं तो तौबा पर था कायम अपनी ऐ शेखे हरम
ले के मुझ को मयकदे में शौके रिन्दाना गया

देखता किस दिल से उसको इश्क में जलते हुए
शम्-ऐ-सोज़ाँ की तरफ़ ख़ुद बढ़ के परवाना गया

हर तरफ महफिल में उसकी कहकहों की गूँज थी
मैं सुनाने उसको नाहक गम का अफसाना गया

यक बयक रुख पर सभी के इक उदासी छ गयी
उठके तेरी बज्म से जब तेरा दीवाना गया

क्यों न करता वह सितमगर ऐ मयंक उसको कबूल
जिसकी खिदमत में मैं लेकर दिल का नजराना गया

ग़ज़ल 12

प्यार सबसे हुज़ूर हमने किया
सिर्फ़ इतना कसूर हमने किया

उनके दानिस्ता पास जा बैठे
ख़ुद को ख़ुद से ही दूर हमने किया

दिल को टकरा दिया था पत्थर से
आइना चूर चूर हमने किया

प्यार करना गुनाह है फिर भी
यह गुनह भी हुज़ूर हमने किया

चार दिन की थी जिंदगी, मालूम
फिर भी इस पर गुरूर हमने किया

हम ही मकतूल भी हैं, कातिल भी
कत्ल ख़ुद को हुज़ूर हमने किया

दें सज़ा शौक़ से वो हमको मयंक
आदमी हैं, कसूर हमने किया

ग़ज़ल 11

नाशाद था मैं और भी नाशाद हो गया
जब से ग़मों की क़ैद से आजाद हो गया

कोई दुआ न हक में मेरे काम आ सकी
बर्बाद मुझको होना था, बर्बाद हो गया

आसान किस कदर है मुहब्बत का यह सबक
बस एक बार मैं ने पढ़ा, याद हो गया

मैं मांगने गया था वहां जिंदगी मगर
फरमान मेरी मौत का इरशाद हो गया

दिल तोड़ने पे मेरा ज़माना लगा रहा
दिल टूटता भी कैसे जो फौलाद हो गया

हम तो तमाम उम्र रहे मुब्तदी मगर
वह चंद शेर कहके ही उस्ताद हो गया

जब से वो मेरे दिल में मकीं हो गए मयंक
उजड़ा हुआ मकान था, आबाद हो गया

रविवार, 12 अप्रैल 2009

ग़ज़ल :10

छोड़ के मन्दिर -मस्जिद आओ वापस दुनियादारी में
घर बैठे ही चैन मिलेगा बच्चों की किलकारी में।
कैसे करें इजहारे मुहब्बत दोनों हैं दुश्वारी में
हम अपनी हुशियारी में हैं वह अपनी हुशियारी में।
अच्छे दिनों में सब थे साथी , सबसे था याराना भी
लेकिन मेरे काम न आया कोई भी दुश्वारी में ।
शहर में अपने प्रदूषण का यह आलम तौबा-तौबा
बिक गया घर का सारा असासा बच्चों की बीमारी में।
पीने वालों की बातों को पीने वाला समझेगा
तुमको क्या बतलाएं जाहिद लुत्फ़ है क्या मयख्वारी में।
आपकी चाहत के मैं सदके ऐसी बहारें आयीं हैं
रंग-बिरंगे फूल खिले हैं जीवन की फुलवारी में।
हिर्सो-हवस की इस दुनिया में यह भी कम तो नहीं मयंक
उम्र हमारी जो गुजरी है गुजरी है खुद्दारी में।

शनिवार, 11 अप्रैल 2009

ग़ज़ल 9

इश्क में क्या खोया क्या पाया मैं भी सोचू तू भी सोच
क्यों ये तसव्वुर ज़हन में आया मैं भी सोचूँ तू भी सोच।
हर चेहरे पर चेहरा हो तो कैसे हम यह पहचाने
कौन है अपना कौन पराया मैं भी सोचूँ तू भी सोच ।
कब्र में जाकर मिट्टी में मिल जाने वाली मिट्टी को
यारों ने फिर क्यों नहलाया मैं भी सोचूँ तू भी सोच।
तू भी कातिल मैं भी कातिल मकतल हम दोनों के दिल
किसने किसका खून बहाया मैं भी सोचूँ तू भी सोच।
फूल खिलाता था जो कल तक आज वो कांटे बोता है
फ़र्क़ आख़िर यह कैसे आया मैं भी सोचूँ तू भी सोच।
दुनिया भी एक सरमाया है उक़बा भी इक सरमाया
कौन सा अच्छा है सरमाया मैं भी सोचूँ तू भी सोच।
जब तक सूरज सर पे नहीं था साथ मयंक के चलता था
पाँव तले अब क्यों है साया मैं भी सोचूँ तू भी सोच।

शुक्रवार, 27 मार्च 2009

ग़ज़ल -8

इन्सां को बदलने में कुछ देर तो लगती है
पत्थर को पिघलने में कुछ देर तो लगती है

सींचा ही नहीं जिसको गुलशन के निगहबां ने
उस पेड़ को फलने में कुछ देर तो लगती है

ये फूल नहीं जिनको चुटकी से मसल डालो
काँटों को कुचलने में कुछ देर तो लगती है

होता है करम उसका आहिस्ता ही आहिस्ता
हालात बदलने में कुछ देर तो लगती है

वाइज़ को यूंही यारो मयखाने में आने दो
ईमान बदलने में कुछ देर तो लगती है

हो दूर अगर माँ से तुम लाख खिलौने दो
बच्चे को बहलने में कुछ देर तो लगती है

वादों के सहारे जो जीता है मुहब्बत में
दम उसका निकलने में कुछ देर तो लगती है

हर गाम पे ठोकर जो खाता हो मयंक उसको
गिर गिर के संभलने में कुछ देर तो लगती है.

बुधवार, 25 मार्च 2009

ग़ज़ल-7

फना ख़ुद बढ़ के देती है बका ,ऐसा भी होता है
"दिए को जिन्दा रखती है हवा ऐसा भी होता है"

कोई हिकमत न काम आए तो हाथ ऊपर दीजे
दवा का काम करती है दुआ ऐसा भी होता है

कफस की जिन्दगी अगर रास आ जाए परिंदे को
रिहाई भी लगे उसको सजा ,ऐसा भी होता है

झपकती ही नहीं पलकें किसी की भूख के मारे
हमारे घर में अक्सर रतजगा ,ऐसा भी होता है

नहाए जब कोई मजदूर मेहनत के पसीने से
लगे लू भी उसे बादे-सबा,ऐसा भी होता है

कसीदे कौन लिखता है किसी की बेवफाई के
मुहब्बत में मगर ऐ बेवफा ऐसा भी होता है

बगावत पर उतर आता है जब तश्ना-दहन कोई
उठा लेता है सर पर मयकदा ऐसा भी होता है

सजाए मौत मिलती है सदाकत के फरिश्तों को
तुम्हारे शहर में ऐ दोस्त क्या ऐसा भी होता है

अकीदत की नजर से जब किसी पत्थर को देखोगे
लगेगा फ़िर 'मयंक ' ऐसा ,खुदा ऐसा भी होता है।


मंगलवार, 24 मार्च 2009

gazal- 6

दर्द कुछ ऐसा बढ़ा खुशहालियाँ कम डी गयीं
जब से मेरी आप से नजदीकियां कम हो गयीं

माँ वही, ममता वही, बच्चा वही, झूला वही
वक्त के होटों पे लेकिन लोरियां कम हो गयीं


आपने बौने दरख्तों से समर तो ले लिए
राहगीरों के लिए परछाइयां कम हो गयीं

मैं समर वाले दरख्तों की तरह जब झुक गया
लोग यह कहने लगे खुद्दारियाँ कम हो गयीं

मासिवा मेरे सभी के आशियाँ महफूज़ हैं
अब्र के दामन में शायद बिजलियाँ कम हो गयीं

चल 'मयंक' उठ चल बुलाती है तेरी मंजिल तुझे
आसमाँ भी साफ़ है और आंधियां कम हो गयीं

शुक्रवार, 20 मार्च 2009

ग़ज़ल- 5

अंधेरों में कमी देते नहीं हैं
चिराग अब रोशनी देते नहीं हैं

नसीमे सुबह के भी नर्म झोंके
चमन को ताजगी देते नहीं हैं

फ़क़त आता है इनको क़त्ल करना
ये कातिल जिंदगी देते नहीं हैं

हमें मालूम हैं उल्फत के लम्हे
सुकूने जिंदगी देते नहीं हैं

अमीरों के दरे दौलत पे जाकर
कभी हम हाजिरी देते नहीं हैं

हमारे हौसलों की दाद वह भी
कभी देते, कभी देते नहीं हैं

बदलते मौसमों के बदले तेवर
ख़बर तूफ़ान की देते नहीं हैं

वो क्या बाँटेंगे अपनी मुस्कराहट
जो औरों को खुशी देते नहीं हैं

न जाने क्यों 'मयंक' अब दैरो-काबा
पयामे आश्ती देते नहीं हैं


ग़ज़ल-4

करम से उनके हम महरूम क्यों हैं
ख़फ़ा हम से नहीं मालूम क्यों हैं।

वफ़ादारी के सब कायल हैं फ़िर भी
वफ़ाओं के निशां मादूम क्यों हैं।

जबां पर कोई पाबंदी नहीं है
यहाँ फ़िर बेजबां मजलूम क्यों हैं।

सिला खिदमत का जब मिला नहीं है
हजारों आपके मखदूम क्यों हैं।

न देखा आज तक जिसको किसी ने
उसी के सब के सब महकूम क्यों हैं।

हमें मालूम है अहले सियासत
बजाहिर इस कदर मासूम क्यों हैं।

मुहब्बत है मयंक इक हर्फ लेकिन
फ़िर इसके सैकडों मफहुम क्यों हैं।


ग़ज़ल -3

दर्द कुछ ऐसा बढा खुशहालियाँ कम हो गयीं
जब से मेरी आप से नजदीकियां कम हो गयीं।

माँ वही , ममता वही ,बच्चा वही ,झूला वही
वक्त के होंठों पे लेकिन लोरियां कम हो गयीं।

आपने बौने दरख्तों से समर तो ले लिए
राहगीरों
के लिए परछाइयां कम हो गयीं।

मैं समर वाले दरख्तों की तरह जब झुक गया
लोग यह कहने लगे खुद्दारियां कम हो गयीं।

मासिवा मेरे सभी के आशियाँ महफूज़ हैं
अब्र के दामन में शायद बिजलियाँ कम हो गयीं ।

चल मयंक उठ चल बुलाती है तेरी मंजिल तुझे
आसमां भी साफ़ है और आंधियां कम हो गयीं।

गुरुवार, 19 मार्च 2009

ग़ज़ल- 2

क़र्ज़ क्या है, भीख भी इसको गवारा है मियाँ
ख्वाहिशों ने इस कदर इन्सां को मारा है मियाँ

दोस्त कहके हमने जिसको भी पुकारा है मियां
बस उसी ने पीठ में खंजर उतारा है मियां

वो वतन पर मिट गए और ये मिटा देंगे वतन
जानते हो किस तरफ़ मेरा इशारा है मियां

दूर तक पानी ही पानी है मगर प्यासे हैं लोग
जिंदगी खारे समंदर का नज़ारा है मियां

वह फ़क़त दो गज ज़मीं में क़ैद होकर रह गया
जो ये कहता था कि ये सब कुछ हमारा है मियां

जो मनाये खुल के खुशियाँ दुश्मनों की जीत पर
वो हमारा हो के भी दुश्मन हमारा है मियां

दूर कितनी भी हो मंजिल तुमको जाना है 'मयंक'
फिर किसी ने प्यार से तुमको पुकारा है मियां

ग़ज़ल - 1

तेरी बस्ती में लगता मन नहीं है
यहाँ लोगों में अपनापन नहीं है।

लगाएं हम कहाँ तुलसी का पौधा
हमारे घर में अब आँगन नहीं है।

खिलौने तब कहाँ थे खेलने को
खिलौने हैं तो अब बचपन नहीं है।

किधर से आ रहे हैं घर में पत्थर
पड़ोसी से मेरी अनबन नहीं है।

जलाते हैं इसे हर साल हम सब
मगर मरता कभी रावन नहीं है।

धड़कने को धड़कते दिल हैं फिर भी
दिलों में प्यार की धड़कन नहीं है।

करो मत अपने जिस्मों की नुमाइश
ये भारत है, कोई लन्दन नहीं है।

क्यों अपने आप से अनजान है वो
क्या उसके हाथ में दर्पण नहीं हैं।

करे तनकीद जो शेरो पे मेरी
'मयंक' इतना किसी में फन नहीं है.