शुक्रवार, 27 मार्च 2009

ग़ज़ल -8

इन्सां को बदलने में कुछ देर तो लगती है
पत्थर को पिघलने में कुछ देर तो लगती है

सींचा ही नहीं जिसको गुलशन के निगहबां ने
उस पेड़ को फलने में कुछ देर तो लगती है

ये फूल नहीं जिनको चुटकी से मसल डालो
काँटों को कुचलने में कुछ देर तो लगती है

होता है करम उसका आहिस्ता ही आहिस्ता
हालात बदलने में कुछ देर तो लगती है

वाइज़ को यूंही यारो मयखाने में आने दो
ईमान बदलने में कुछ देर तो लगती है

हो दूर अगर माँ से तुम लाख खिलौने दो
बच्चे को बहलने में कुछ देर तो लगती है

वादों के सहारे जो जीता है मुहब्बत में
दम उसका निकलने में कुछ देर तो लगती है

हर गाम पे ठोकर जो खाता हो मयंक उसको
गिर गिर के संभलने में कुछ देर तो लगती है.

बुधवार, 25 मार्च 2009

ग़ज़ल-7

फना ख़ुद बढ़ के देती है बका ,ऐसा भी होता है
"दिए को जिन्दा रखती है हवा ऐसा भी होता है"

कोई हिकमत न काम आए तो हाथ ऊपर दीजे
दवा का काम करती है दुआ ऐसा भी होता है

कफस की जिन्दगी अगर रास आ जाए परिंदे को
रिहाई भी लगे उसको सजा ,ऐसा भी होता है

झपकती ही नहीं पलकें किसी की भूख के मारे
हमारे घर में अक्सर रतजगा ,ऐसा भी होता है

नहाए जब कोई मजदूर मेहनत के पसीने से
लगे लू भी उसे बादे-सबा,ऐसा भी होता है

कसीदे कौन लिखता है किसी की बेवफाई के
मुहब्बत में मगर ऐ बेवफा ऐसा भी होता है

बगावत पर उतर आता है जब तश्ना-दहन कोई
उठा लेता है सर पर मयकदा ऐसा भी होता है

सजाए मौत मिलती है सदाकत के फरिश्तों को
तुम्हारे शहर में ऐ दोस्त क्या ऐसा भी होता है

अकीदत की नजर से जब किसी पत्थर को देखोगे
लगेगा फ़िर 'मयंक ' ऐसा ,खुदा ऐसा भी होता है।


मंगलवार, 24 मार्च 2009

gazal- 6

दर्द कुछ ऐसा बढ़ा खुशहालियाँ कम डी गयीं
जब से मेरी आप से नजदीकियां कम हो गयीं

माँ वही, ममता वही, बच्चा वही, झूला वही
वक्त के होटों पे लेकिन लोरियां कम हो गयीं


आपने बौने दरख्तों से समर तो ले लिए
राहगीरों के लिए परछाइयां कम हो गयीं

मैं समर वाले दरख्तों की तरह जब झुक गया
लोग यह कहने लगे खुद्दारियाँ कम हो गयीं

मासिवा मेरे सभी के आशियाँ महफूज़ हैं
अब्र के दामन में शायद बिजलियाँ कम हो गयीं

चल 'मयंक' उठ चल बुलाती है तेरी मंजिल तुझे
आसमाँ भी साफ़ है और आंधियां कम हो गयीं

शुक्रवार, 20 मार्च 2009

ग़ज़ल- 5

अंधेरों में कमी देते नहीं हैं
चिराग अब रोशनी देते नहीं हैं

नसीमे सुबह के भी नर्म झोंके
चमन को ताजगी देते नहीं हैं

फ़क़त आता है इनको क़त्ल करना
ये कातिल जिंदगी देते नहीं हैं

हमें मालूम हैं उल्फत के लम्हे
सुकूने जिंदगी देते नहीं हैं

अमीरों के दरे दौलत पे जाकर
कभी हम हाजिरी देते नहीं हैं

हमारे हौसलों की दाद वह भी
कभी देते, कभी देते नहीं हैं

बदलते मौसमों के बदले तेवर
ख़बर तूफ़ान की देते नहीं हैं

वो क्या बाँटेंगे अपनी मुस्कराहट
जो औरों को खुशी देते नहीं हैं

न जाने क्यों 'मयंक' अब दैरो-काबा
पयामे आश्ती देते नहीं हैं


ग़ज़ल-4

करम से उनके हम महरूम क्यों हैं
ख़फ़ा हम से नहीं मालूम क्यों हैं।

वफ़ादारी के सब कायल हैं फ़िर भी
वफ़ाओं के निशां मादूम क्यों हैं।

जबां पर कोई पाबंदी नहीं है
यहाँ फ़िर बेजबां मजलूम क्यों हैं।

सिला खिदमत का जब मिला नहीं है
हजारों आपके मखदूम क्यों हैं।

न देखा आज तक जिसको किसी ने
उसी के सब के सब महकूम क्यों हैं।

हमें मालूम है अहले सियासत
बजाहिर इस कदर मासूम क्यों हैं।

मुहब्बत है मयंक इक हर्फ लेकिन
फ़िर इसके सैकडों मफहुम क्यों हैं।


ग़ज़ल -3

दर्द कुछ ऐसा बढा खुशहालियाँ कम हो गयीं
जब से मेरी आप से नजदीकियां कम हो गयीं।

माँ वही , ममता वही ,बच्चा वही ,झूला वही
वक्त के होंठों पे लेकिन लोरियां कम हो गयीं।

आपने बौने दरख्तों से समर तो ले लिए
राहगीरों
के लिए परछाइयां कम हो गयीं।

मैं समर वाले दरख्तों की तरह जब झुक गया
लोग यह कहने लगे खुद्दारियां कम हो गयीं।

मासिवा मेरे सभी के आशियाँ महफूज़ हैं
अब्र के दामन में शायद बिजलियाँ कम हो गयीं ।

चल मयंक उठ चल बुलाती है तेरी मंजिल तुझे
आसमां भी साफ़ है और आंधियां कम हो गयीं।

गुरुवार, 19 मार्च 2009

ग़ज़ल- 2

क़र्ज़ क्या है, भीख भी इसको गवारा है मियाँ
ख्वाहिशों ने इस कदर इन्सां को मारा है मियाँ

दोस्त कहके हमने जिसको भी पुकारा है मियां
बस उसी ने पीठ में खंजर उतारा है मियां

वो वतन पर मिट गए और ये मिटा देंगे वतन
जानते हो किस तरफ़ मेरा इशारा है मियां

दूर तक पानी ही पानी है मगर प्यासे हैं लोग
जिंदगी खारे समंदर का नज़ारा है मियां

वह फ़क़त दो गज ज़मीं में क़ैद होकर रह गया
जो ये कहता था कि ये सब कुछ हमारा है मियां

जो मनाये खुल के खुशियाँ दुश्मनों की जीत पर
वो हमारा हो के भी दुश्मन हमारा है मियां

दूर कितनी भी हो मंजिल तुमको जाना है 'मयंक'
फिर किसी ने प्यार से तुमको पुकारा है मियां

ग़ज़ल - 1

तेरी बस्ती में लगता मन नहीं है
यहाँ लोगों में अपनापन नहीं है।

लगाएं हम कहाँ तुलसी का पौधा
हमारे घर में अब आँगन नहीं है।

खिलौने तब कहाँ थे खेलने को
खिलौने हैं तो अब बचपन नहीं है।

किधर से आ रहे हैं घर में पत्थर
पड़ोसी से मेरी अनबन नहीं है।

जलाते हैं इसे हर साल हम सब
मगर मरता कभी रावन नहीं है।

धड़कने को धड़कते दिल हैं फिर भी
दिलों में प्यार की धड़कन नहीं है।

करो मत अपने जिस्मों की नुमाइश
ये भारत है, कोई लन्दन नहीं है।

क्यों अपने आप से अनजान है वो
क्या उसके हाथ में दर्पण नहीं हैं।

करे तनकीद जो शेरो पे मेरी
'मयंक' इतना किसी में फन नहीं है.