मंगलवार, 1 सितंबर 2009

गजल- 32

वही राहें बनाता है, वही मंज़िल बनाता है
वही राहों पे चलने के हमें क़ाबिल बनाता है

डुबोने से ज़ियादा उसकी ख्वाहिश है बचाने की
तभी तो एक दरिया और दो साहिल बनाता है

बनाता है बड़ी मेहनत से वो दिलकश, हसीं चेहरे
बचाने को नज़र से उन पे काले तिल बनाता है

जनम लेता है इन्सां इस जहाँ में नेकियाँ लेकर
मगर माहौल उसको संत या क़ातिल बनाता है

हया, पर्दा, झिझक, नज़रें चुराना और चुप रहना
न जाने इशक क्यों इंसान को बुज़दिल बनाता है

ग़रीब इंसान जब आसानियों में ढूंढता है हल
तो अपनी मुश्किलों को और भी मुश्किल बनाता है

मयंक इन्सां सबक़ लेता नहीं जो अपने माज़ी से
वो दोज़ख से भी बदतर अपना मुस्तक़बिल बनाता है

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