शुक्रवार, 29 मई 2009

गजल- 24

मत किसी का बुरा कीजिये
हो सके तो भला कीजिये।


है मरज़ इश्क का लादवा
मेरे हक में दुआ कीजिये ।


ये मुहब्बत भी क्या खूब है
बेवफा से वफ़ा कीजिये।

लोग जिसको मिसाली कहें
कोई ऐसी खता कीजिये।

अक्ल को दख्ल देने न दें
दिल कहे वह कहां कीजिये ।

साफगोई बजा है मगर
क्यों किसी को खफा कीजिये।

जो लगाये बुझाए 'मयंक'
उससे बचकर रहा कीजिये।

बुधवार, 27 मई 2009

गजल -23

मेरी मय्यत पर आ जाना पहन के जोड़ा शादी का
दुनिया वाले भी तो देखें ज़श्न मेरी बर्बादी का

हुस्न और इश्क के बीच में हरदम चांदी की दीवारे हैं
रास कहाँ मुफलिस को आता प्यार किसी शहजादी का


देख के मेरी हालत मौसम की भी आँखें नम हैं आज
तुम भी तडप उठोगे सुनकर जिक्र मेरी बर्बादी का


दूर कफस से हूँ मैं लेकिन यादे माजी में हूँ कैद
मतलब गलत लगा बैठे हैं लोग मेरी आजादी का

किसकी अदालत में वह जाए किससे मांगे अब इन्साफ

कोई भी पुरसा हाल नहीं है आज यहाँ फरियादी का

जो भी चाहो शौक से पहनो तन पर लेकिन दीवानों
तार तार तुम मत कर देना पैराहन आजादी का


मुद्दत से मैं भटक रहा हूँ नफरत के सहरा में 'मयंक'
काश कोई रस्ता दिखला दे चाहत की आबादी का।

रविवार, 24 मई 2009

गजल- 22

क्या पीरी क्या दौरे जवानी
चार दिनों की रामकहानी।

घाट पे जब भी पापी पहुंचा
गंगा हो गई पानी-पानी।

लाख इसे समझाया लेकिन
दिल ने की अपनी मनमानी

घूम रहे हैं कासा लेकर
क्या जनता क्या राजा-रानी।

तेरी यादें ऐसी महकें
रात में जैसे रात की रानी।

तर्के-मुहब्बत तौबा-तौबा
मत करना ऐसी नादानी ।

ड़ूब गई जब दिल की किश्ती
थम गई मौजों की तुग्यानी।

मुझको मयंक ऐसा लगता है
मर गया सबकी आँख का पानी ।

गजल- 21

वक्त की रफ्तार को रखिये पकड़ कर हाथ में
और फिर कहिये कि है अपना मुकद्दर हाथ में

अब तुझे कोई बचा सकता नहीं ऐ संगदिल
आ रहे हैं आइने अब लेके पत्थर हाथ में

बंद मुट्ठी लाख की है तो भला बतलाइए
क्या छुपा रक्खा है यह मट्ठी के अंदर हाथ में

ऐ हवसकारो, जरा देखो तो आँखें खोल कर
ले गया क्या लेके आया था सिकन्दर हाथ में

नफरतों की राह पर यूंही अगर चलते रहे
कुछ न आएगा तुम्हारे जिंदगी भर हाथ में

बैठ कर साहिल पे क्यों चुनता है कंकर ऐ मयंक
डूबने वालों के ही आते हैं गौहर हाथ में

शनिवार, 23 मई 2009

गजल- 20

न होते हौसले तो रास्ते यूँ सर नहीं होते
उडानें भरने वाले दिल के लेकिन पर नहीं होते

खुदा आँखें तो देता है मगर ऐसा भी होता है
कि उनके देखने के वास्ते मंजर नहीं होते

हंसी में भी कभी आंखों में आंसू झिलमिलाते हैं
मैं रोता हूँ मेरी आंखों के गोशे तर नहीं होते

समन्दर में अगर मैं डूबने से डर गया होता
यकीनन मेरे हाथों में कभी गौहर नहीं होते

इरादों में कभी भी इन्कलाब आने नहीं पाता
अगर कुछ वलवले दिल के मेरे अन्दर नहीं होते

कभी ऐ ताजिरों, इस बात पर भी गौर फरमाया
कि वो कैसे रहा करते हैं जिनके घर नहीं होते

मयंक उस तीरगी में डूब जाता यह जहाँ सारा
अगर महफिल में बेपर्दा वो जलवागर नहीं होते

गजल- 19

मैं ने कहा हो जलवागर, उसने कहा नहीं नहीं
मैं ने कहा मिला नजर, उसने कहा नहीं नहीं

मैं ने कहा ये शाम है, उसने कहा ये जाम है
मैं ने कहा तो जाम भर, उसने कहा नहीं नहीं

मैं ने कहा कहाँ मिलें, उसने कहा जहाँ कहें
मैं ने कहा कि बाम पर, उसने कहा नहीं नहीं

मैं ने कहा कि रुख इधर, उसने कहा, है चश्म तर
मैं ने कहा कि सब्र कर, उसने कहा नहीं नहीं

मैं ने कहा कि हो नजर, उसने कहा कहाँ, किधर
मैं ने कहा मयंक पर, उसने कहा नहीं नहीं

गुरुवार, 7 मई 2009

गजल- 18

माना कि एक संग हूँ , शंकर नहीं हूँ मैं
लेकिन किसी की राह का पत्थर नहीं हूँ मैं

आवारगी है मेरा मुकद्दर तो क्या हुआ
सबके दिलों में रहता हूँ, बेघर नहीं हूँ मैं

सबके लबों की प्यास बुझाता हूँ रात दिन
दरिया हूँ मीठे जल का, समन्दर नहीं हूँ मैं

आते नहीं हैं मुझको सियासत के दांव पेंच
राही हूँ राहे इश्क का, रहबर नहीं हूँ मैं

गरचे मेरी उड़ान फलक तक है ऐ मयंक
दुनिया की बंदिशों से भी बाहर नहीं हूँ मैं

सोमवार, 4 मई 2009

ग़ज़ल 17

आपकी जो भी चाल है साहब
वाकई बेमिसाल है साहब
रोज़ आते हैं वह तसव्वुर में
उनको मेरा ख़याल है साहब
चाँद सूरज से भी सिवा यारों
उनका हुस्नो जमाल है साहब
जिसने अंजाम पर नज़र की है
वह परेशान हाल है साहब
रिफ़अतें अब कहाँ हैं किस्मत में
अब तो दिल पायमाल है साहब
अपनी हद से गुज़र गया था मैं
मुझको इसका मलाल है साहब
क्यों मयंक आदमी है छोटा बडा
खून जब सबका लाल है साहब।

रविवार, 3 मई 2009

गजल -16


कहीं गीता के वारिस हैं कहीं कुरआन के वारिस

हकीक़त में मगर यह सब हैं हिन्दुस्तान के वारिस

हमारी पारसाई पर खुदाई नाज करती है

हमीं हैं हाँ हमीं हैं दौलते ईमान के वारिस

अदब और शायरी का दोस्तों हाफिज़ खुदा होगा

अगर जाहिल रहेंगे मीर के दीवान के वारिस

मुझे हर एक मजहब से जियादा देश प्यारा है

मेरी यह बात सुन लें धर्म के ईमान के वारिस

वो जिसके नाम से लाखों हजारों फैज़ पाते थे

बिलखते भूख से देखे हैं उस सुलतान के वारिस

मयंक अठखेलियाँ हैं जो मौजे हवादिस से

हकीक़त में वही तो होते हैं तूफ़ान के वारिस

शुक्रवार, 1 मई 2009

गजल- 15

हाथ यारी का बढाते हुए डर लगता है
हर इक से जताते हुए डर लगता है

छीन कर मुझ से कहीं तोड़ न डाले जालिम
आइना उस को दिखाते हुए डर लगता है

मेरे घर में भी कहीं लोग न फेंकें पत्थर
पेड़ आंगन में लगाते हुए डर लगता है

लोग दर पर भी तेरे आते हैं तलवार लिए
सर को सजदे में झुकाते हुए डर लगता है

और मगरूर न हो जाए सितम पर अपने
हाले गम उसको सुनाते हुए डर लगता है

कैसे पुर्सिश को मयंक आयेंगे वह रात गये
जिनको ख्वाबों में भी आते हुए डर लगता है


गजल-14

मौत के पैकर में ढलने दीजिये
चींटियों के पर निकलने दीजिये

ख़ाक हो जाएगा इक दिन ख़ुद बखुद
हम से जो जलता है, जलने दीजिये

जोश जो दिल में हमारे है, उसे
जंग के पैकर में ढलने दीजिये

देखता है ख्वाब जो कश्मीर का
उसको ख्वाबों में ही पलने दीजिये

ठोकरें खा कर गिरेंगे मुंह के बल
झूठ की राहों पे चलने दीजिये

जो मेरी आंखों में चुभते है मयंक
मुझको वो कांटे कुचलने दीजिये