मंगलवार, 14 अप्रैल 2009

ग़ज़ल 13

ज़र्फ़ की मीजान पर हर दोस्त पहचाना गया
हम ज़रा सी बात पर रूठे तो याराना गया

हम जो उनकी बज्म से दामन झटक कर चल दिए
खुश हुए, कहने लगे, अच्छा है दीवाना गया

मैं तो तौबा पर था कायम अपनी ऐ शेखे हरम
ले के मुझ को मयकदे में शौके रिन्दाना गया

देखता किस दिल से उसको इश्क में जलते हुए
शम्-ऐ-सोज़ाँ की तरफ़ ख़ुद बढ़ के परवाना गया

हर तरफ महफिल में उसकी कहकहों की गूँज थी
मैं सुनाने उसको नाहक गम का अफसाना गया

यक बयक रुख पर सभी के इक उदासी छ गयी
उठके तेरी बज्म से जब तेरा दीवाना गया

क्यों न करता वह सितमगर ऐ मयंक उसको कबूल
जिसकी खिदमत में मैं लेकर दिल का नजराना गया

ग़ज़ल 12

प्यार सबसे हुज़ूर हमने किया
सिर्फ़ इतना कसूर हमने किया

उनके दानिस्ता पास जा बैठे
ख़ुद को ख़ुद से ही दूर हमने किया

दिल को टकरा दिया था पत्थर से
आइना चूर चूर हमने किया

प्यार करना गुनाह है फिर भी
यह गुनह भी हुज़ूर हमने किया

चार दिन की थी जिंदगी, मालूम
फिर भी इस पर गुरूर हमने किया

हम ही मकतूल भी हैं, कातिल भी
कत्ल ख़ुद को हुज़ूर हमने किया

दें सज़ा शौक़ से वो हमको मयंक
आदमी हैं, कसूर हमने किया

ग़ज़ल 11

नाशाद था मैं और भी नाशाद हो गया
जब से ग़मों की क़ैद से आजाद हो गया

कोई दुआ न हक में मेरे काम आ सकी
बर्बाद मुझको होना था, बर्बाद हो गया

आसान किस कदर है मुहब्बत का यह सबक
बस एक बार मैं ने पढ़ा, याद हो गया

मैं मांगने गया था वहां जिंदगी मगर
फरमान मेरी मौत का इरशाद हो गया

दिल तोड़ने पे मेरा ज़माना लगा रहा
दिल टूटता भी कैसे जो फौलाद हो गया

हम तो तमाम उम्र रहे मुब्तदी मगर
वह चंद शेर कहके ही उस्ताद हो गया

जब से वो मेरे दिल में मकीं हो गए मयंक
उजड़ा हुआ मकान था, आबाद हो गया

रविवार, 12 अप्रैल 2009

ग़ज़ल :10

छोड़ के मन्दिर -मस्जिद आओ वापस दुनियादारी में
घर बैठे ही चैन मिलेगा बच्चों की किलकारी में।
कैसे करें इजहारे मुहब्बत दोनों हैं दुश्वारी में
हम अपनी हुशियारी में हैं वह अपनी हुशियारी में।
अच्छे दिनों में सब थे साथी , सबसे था याराना भी
लेकिन मेरे काम न आया कोई भी दुश्वारी में ।
शहर में अपने प्रदूषण का यह आलम तौबा-तौबा
बिक गया घर का सारा असासा बच्चों की बीमारी में।
पीने वालों की बातों को पीने वाला समझेगा
तुमको क्या बतलाएं जाहिद लुत्फ़ है क्या मयख्वारी में।
आपकी चाहत के मैं सदके ऐसी बहारें आयीं हैं
रंग-बिरंगे फूल खिले हैं जीवन की फुलवारी में।
हिर्सो-हवस की इस दुनिया में यह भी कम तो नहीं मयंक
उम्र हमारी जो गुजरी है गुजरी है खुद्दारी में।

शनिवार, 11 अप्रैल 2009

ग़ज़ल 9

इश्क में क्या खोया क्या पाया मैं भी सोचू तू भी सोच
क्यों ये तसव्वुर ज़हन में आया मैं भी सोचूँ तू भी सोच।
हर चेहरे पर चेहरा हो तो कैसे हम यह पहचाने
कौन है अपना कौन पराया मैं भी सोचूँ तू भी सोच ।
कब्र में जाकर मिट्टी में मिल जाने वाली मिट्टी को
यारों ने फिर क्यों नहलाया मैं भी सोचूँ तू भी सोच।
तू भी कातिल मैं भी कातिल मकतल हम दोनों के दिल
किसने किसका खून बहाया मैं भी सोचूँ तू भी सोच।
फूल खिलाता था जो कल तक आज वो कांटे बोता है
फ़र्क़ आख़िर यह कैसे आया मैं भी सोचूँ तू भी सोच।
दुनिया भी एक सरमाया है उक़बा भी इक सरमाया
कौन सा अच्छा है सरमाया मैं भी सोचूँ तू भी सोच।
जब तक सूरज सर पे नहीं था साथ मयंक के चलता था
पाँव तले अब क्यों है साया मैं भी सोचूँ तू भी सोच।