शुक्रवार, 19 जून 2009

गजल 30

तुमने जिसकी जिन्दगी पामाल की

दो इजाज़त उसको अर्जे हाल की


भर लिए दामन में अपने अश्के गम

जिंदगी यूं हमने मालामाल की


इश्क फ़िर फरमाईये किबला हुजूर

फ़िक्र कीजे पहले आटे दाल की


मैं गुजारिश रहम की करता नहीं

दो सजा मुझ्कू मेरे आमाल की


तोड़ कर उड़ जाएगा एक दिन परिन्द

बंदिशे जितनी हैं मायाजाल की


जंग में माँ की दुआएं साथ हैं

क्या ज़रूरत है मुझे अब ढाल की


कम से कम ही बैठ पाती हैं 'मयंक'

पालकी में बेटियाँ कंगाल की

गजल 29

देख लीजे जो देखा नहीं
जिंदगी का भरोसा नहीं

गम की शिद्दत उसे क्या पता
दिल कभी जिसका टूटा नहीं

आओगे ख्वाब में किस तरह
मुद्दतों से मैं सोया नहीं

जिसको फूलोसे है उनसियत
वो कभी खार बोता नहीं

देखिये मेरी मजबूरियां
मैं जो चाहूँ वो होता नहीं

आ के साहिल पे क्यों डूबते
नाखुदा जो डुबोता नहीं

छोडिये फ़िक्रे सूदो जियां
इश्क है इश्क , सौदा नहीं

प्यार होता है ख़ुद ही 'मयंक'
प्यार करने से होता नहीं।

सोमवार, 15 जून 2009

गजल 28

जो तिरंगे को करना नमन छोड़ दें

उनसे कह दो वो मेरा वतन छोड़ दें।



पंचशील और अहिंसा के हामी हैं हम
क्यों खुलूसो-वफा के चलन छोड़ दें।


'सूर' , 'गालिब' , 'कबीरा' के वारिस हैं हम
क्यों मुहब्बत के लिखना सुखन छोड़ दें।

शहरे कातिल में रहकर मुनासिब नहीं
बाँधना हम सरों से कफन छोड़ दें।

हिंद गौरी के शोलों से डर जाएगा
देखना आप ऐसे सपन छोड़ दें।

'मयंक' अब यही वक्त की मांग है
एक दूजे से रखना जलन छोड़ दें।

शनिवार, 13 जून 2009

गजल 27

हम किसे अपना बनायें शाम ढल जाने के बाद
हाले दिल किसको बतायें शाम ढल जाने के बाद ।

क्या करें जब दिल के अरमानों को सुलगाती हैं ये
उनके कूचे की हवायें शाम ढल जाने के बाद ।

जब भी मुड़ कर देखता हूँ कुछ नजर आता नहीं
कौन देता है सदायें शाम ढल जाने के बाद।

उगते सूरज की इबादत की जिन्होंने उम्र भर
जश्न वह कैसे मनायें शाम ढल जाने के बाद ।

बज्म में वह माहरू जब बेनकाब आने को है
किसलिए दीपक जलायें शाम ढल जाने के बाद।

चूमता हूँ मैं नये अशआर अपने यूं 'मयंक'
चूमे ज्यों बच्चों को मायें शाम ढल जाने बाद।

बुधवार, 10 जून 2009

गजल 26

मेरे आंसू गरचे मेरी दास्ताँ कहते रहे
कहने वाले फ़िर भी मुझको बेज़बा कहते रहे।
और कुछ कहने की फुर्सत जिंन्दगी ने दी कहाँ
उम्र भर हम अपने गम की दास्ताँ कहते रहे।
कर दिया बरबाद जिसकी मेहरबानी ने हमें
हम उसी नामेहरबाँ को मेहरबां कहते रहे।
जिनके दम से थी बहुत महफूज़ शाखे-आशियाँ
हम उन्हीं तिनकों को अपना आशियाँ कहते रहे।
जिसने ख़ुद लूटा सरे मंजिल हमारा कांरवा
हम उसी को अपना मीरे-कांरवा कहते रहे।
जिसकी मिट्टी ने हमारे जिस्म को बख्शी जिला
उम्र भर हम उस जमीं को आसमां कहते रहे।
खाना-ऐ-दिल में हमारे जो मकीं है ऐ 'मयंक'
तौबा-तौबा हम उसी को लामकां कहते रहे।

ग़ज़ल 25

ग़ज़ल के वास्ते लहजा नया तलाश करो
नयी रदीफ़ नया काफिया तलाश करो।

हर इक जुबां में ग़ज़लें कही -सुनी जाएँ
सुखन की दोस्तों ऐसी फिजा तलाश करो।

नयी गजल में नया रंग डालने के लिए
नयी जमीन नया जाबिया तलाश करो।

किसी जबां की बपौती नहीं है सिन्फ़-ऐ-गजल
न माने बात ये ,वो माफिया तलाश करो।

गजल से रंग-ऐ-तगज़्ज़ुल कहीं मिट न जाए
गजल गजल में गजल की अदा तलाश करो।

गजल के रंग में कुछ हुस्न-ऐ-आगही डालो
तो फ़िर गजल में तुम अपनी, खुदा तलाश करो।

अदब समाज की किस्मत बदल भी सकता है
गजल पे चल के नया रास्ता तलाश करो।

गजल से देश में गर इन्कलाब लाना है
अदब में फ़िर कोई बिस्मिल नया तलाश करो।

कि जिसको पढ़ते ही मिट जाएँ सारे दर्दो अलम
'मयंक' ऐसा गजल में नशा तलाश करो।