रविवार, 12 अप्रैल 2009

ग़ज़ल :10

छोड़ के मन्दिर -मस्जिद आओ वापस दुनियादारी में
घर बैठे ही चैन मिलेगा बच्चों की किलकारी में।
कैसे करें इजहारे मुहब्बत दोनों हैं दुश्वारी में
हम अपनी हुशियारी में हैं वह अपनी हुशियारी में।
अच्छे दिनों में सब थे साथी , सबसे था याराना भी
लेकिन मेरे काम न आया कोई भी दुश्वारी में ।
शहर में अपने प्रदूषण का यह आलम तौबा-तौबा
बिक गया घर का सारा असासा बच्चों की बीमारी में।
पीने वालों की बातों को पीने वाला समझेगा
तुमको क्या बतलाएं जाहिद लुत्फ़ है क्या मयख्वारी में।
आपकी चाहत के मैं सदके ऐसी बहारें आयीं हैं
रंग-बिरंगे फूल खिले हैं जीवन की फुलवारी में।
हिर्सो-हवस की इस दुनिया में यह भी कम तो नहीं मयंक
उम्र हमारी जो गुजरी है गुजरी है खुद्दारी में।

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