मंगलवार, 14 अप्रैल 2009

ग़ज़ल 11

नाशाद था मैं और भी नाशाद हो गया
जब से ग़मों की क़ैद से आजाद हो गया

कोई दुआ न हक में मेरे काम आ सकी
बर्बाद मुझको होना था, बर्बाद हो गया

आसान किस कदर है मुहब्बत का यह सबक
बस एक बार मैं ने पढ़ा, याद हो गया

मैं मांगने गया था वहां जिंदगी मगर
फरमान मेरी मौत का इरशाद हो गया

दिल तोड़ने पे मेरा ज़माना लगा रहा
दिल टूटता भी कैसे जो फौलाद हो गया

हम तो तमाम उम्र रहे मुब्तदी मगर
वह चंद शेर कहके ही उस्ताद हो गया

जब से वो मेरे दिल में मकीं हो गए मयंक
उजड़ा हुआ मकान था, आबाद हो गया

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