ज़र्फ़ की मीजान पर हर दोस्त पहचाना गया
हम ज़रा सी बात पर रूठे तो याराना गया
हम जो उनकी बज्म से दामन झटक कर चल दिए
खुश हुए, कहने लगे, अच्छा है दीवाना गया
मैं तो तौबा पर था कायम अपनी ऐ शेखे हरम
ले के मुझ को मयकदे में शौके रिन्दाना गया
देखता किस दिल से उसको इश्क में जलते हुए
शम्-ऐ-सोज़ाँ की तरफ़ ख़ुद बढ़ के परवाना गया
हर तरफ महफिल में उसकी कहकहों की गूँज थी
मैं सुनाने उसको नाहक गम का अफसाना गया
यक बयक रुख पर सभी के इक उदासी छ गयी
उठके तेरी बज्म से जब तेरा दीवाना गया
क्यों न करता वह सितमगर ऐ मयंक उसको कबूल
जिसकी खिदमत में मैं लेकर दिल का नजराना गया
मयूर जी,रचनाएँ पसंद करने के लिए शुक्रगुजार हूँ. आप ने तो बहुत बड़े काम का बीडा उठाया हुआ है. आप हम जैसों को बहुत ज्ञान बाँट रहे है.
जवाब देंहटाएंwelcome to the world of bloggers. Its great experience to go through sophisticated thoughts , you expressed.....
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Kanishka Kashyap
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