सोमवार, 15 जून 2009

गजल 28

जो तिरंगे को करना नमन छोड़ दें

उनसे कह दो वो मेरा वतन छोड़ दें।



पंचशील और अहिंसा के हामी हैं हम
क्यों खुलूसो-वफा के चलन छोड़ दें।


'सूर' , 'गालिब' , 'कबीरा' के वारिस हैं हम
क्यों मुहब्बत के लिखना सुखन छोड़ दें।

शहरे कातिल में रहकर मुनासिब नहीं
बाँधना हम सरों से कफन छोड़ दें।

हिंद गौरी के शोलों से डर जाएगा
देखना आप ऐसे सपन छोड़ दें।

'मयंक' अब यही वक्त की मांग है
एक दूजे से रखना जलन छोड़ दें।

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