शुक्रवार, 20 मार्च 2009

ग़ज़ल-4

करम से उनके हम महरूम क्यों हैं
ख़फ़ा हम से नहीं मालूम क्यों हैं।

वफ़ादारी के सब कायल हैं फ़िर भी
वफ़ाओं के निशां मादूम क्यों हैं।

जबां पर कोई पाबंदी नहीं है
यहाँ फ़िर बेजबां मजलूम क्यों हैं।

सिला खिदमत का जब मिला नहीं है
हजारों आपके मखदूम क्यों हैं।

न देखा आज तक जिसको किसी ने
उसी के सब के सब महकूम क्यों हैं।

हमें मालूम है अहले सियासत
बजाहिर इस कदर मासूम क्यों हैं।

मुहब्बत है मयंक इक हर्फ लेकिन
फ़िर इसके सैकडों मफहुम क्यों हैं।


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