शुक्रवार, 27 मार्च 2009

ग़ज़ल -8

इन्सां को बदलने में कुछ देर तो लगती है
पत्थर को पिघलने में कुछ देर तो लगती है

सींचा ही नहीं जिसको गुलशन के निगहबां ने
उस पेड़ को फलने में कुछ देर तो लगती है

ये फूल नहीं जिनको चुटकी से मसल डालो
काँटों को कुचलने में कुछ देर तो लगती है

होता है करम उसका आहिस्ता ही आहिस्ता
हालात बदलने में कुछ देर तो लगती है

वाइज़ को यूंही यारो मयखाने में आने दो
ईमान बदलने में कुछ देर तो लगती है

हो दूर अगर माँ से तुम लाख खिलौने दो
बच्चे को बहलने में कुछ देर तो लगती है

वादों के सहारे जो जीता है मुहब्बत में
दम उसका निकलने में कुछ देर तो लगती है

हर गाम पे ठोकर जो खाता हो मयंक उसको
गिर गिर के संभलने में कुछ देर तो लगती है.

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