शुक्रवार, 20 मार्च 2009

ग़ज़ल -3

दर्द कुछ ऐसा बढा खुशहालियाँ कम हो गयीं
जब से मेरी आप से नजदीकियां कम हो गयीं।

माँ वही , ममता वही ,बच्चा वही ,झूला वही
वक्त के होंठों पे लेकिन लोरियां कम हो गयीं।

आपने बौने दरख्तों से समर तो ले लिए
राहगीरों
के लिए परछाइयां कम हो गयीं।

मैं समर वाले दरख्तों की तरह जब झुक गया
लोग यह कहने लगे खुद्दारियां कम हो गयीं।

मासिवा मेरे सभी के आशियाँ महफूज़ हैं
अब्र के दामन में शायद बिजलियाँ कम हो गयीं ।

चल मयंक उठ चल बुलाती है तेरी मंजिल तुझे
आसमां भी साफ़ है और आंधियां कम हो गयीं।

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