शुक्रवार, 1 मई 2009

गजल- 15

हाथ यारी का बढाते हुए डर लगता है
हर इक से जताते हुए डर लगता है

छीन कर मुझ से कहीं तोड़ न डाले जालिम
आइना उस को दिखाते हुए डर लगता है

मेरे घर में भी कहीं लोग न फेंकें पत्थर
पेड़ आंगन में लगाते हुए डर लगता है

लोग दर पर भी तेरे आते हैं तलवार लिए
सर को सजदे में झुकाते हुए डर लगता है

और मगरूर न हो जाए सितम पर अपने
हाले गम उसको सुनाते हुए डर लगता है

कैसे पुर्सिश को मयंक आयेंगे वह रात गये
जिनको ख्वाबों में भी आते हुए डर लगता है


1 टिप्पणी:

  1. लोग दर पर भी तेरे आते है तलवार लिये
    सजदे मे सिर झुकाते हुये भी डर लगता है
    सरी गज़ल ही खूब सूरत है बधाई

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